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पहचान / तसलीमा नसरीन

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उसे मैं जितना पुरुष समझती थी
उतना वह है नहीं,
आधा नपुंसक है वह
आधा पुरुष।

जीवन बीत जाता है
आदमी के साथ सोते-बैठते
कितना जान पाते हैं आदमी की असलियत?
इतने दिनों से जैसा सोचा था
ठीक-ठीक जितना समझा था
वैसा वह कुछ भी नहीं,
दर‍असल जिसे पहचानती हूँ सबसे ज़्यादा
उसे ही बिल्कुल नहीं जानती।

जितना मैं उसे समझती थी इन्सान
उतना नहीं है वह
आधा जानवर है वह
आहा आदमी।