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उभयचर-3 / गीत चतुर्वेदी

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जो जीवन में सहा वह कहां कहा जो नहीं सहा उसकी इच्छा कर ली
संसार का सारा दुख मैं झेलूं यह कामना ही
घृणित है वैसी ही विश्वविजयी होने की कामना-सी
मैं उभयचर प्रेम और घृणा में रहता बराबर घृणित कामनाओं का प्रकाशपिंड भी
वह आलू खाता हूं जिसमें केकड़ों के गुणसूत्र भरे
चौवन साल बाद मेरी नस्लों में केकड़े होंगे जाने कब से केकड़ों को अपना भाई कहता आया मैं
इसी उम्मीद में क्या?
जब कहता हूं अठारहवीं सदी में मनुष्य के आकार की एक लिपि हुई थी
पढऩे में माहिर अंग्रेज़ भी जिसे पढ़ ना पाए थे
मेरे पढ़े-लिखे यार-दोस्त समझते हैं कुछ नया पढ़ा रहा हूं इन दिनों
तुम्हारी पीड़ा की कल्पना करना तुम्हें पीड़ा देने से बेहतर है
सुख भले दोनों में एक-सा हो सुख की परिभाषा तो कभी भी एक ही रही नहीं
फिर भी मैं कहता हूं हमारी कल्पनाशक्ति की सबसे बड़ी असफलता
है कि हम युद्ध करते हैं जब भी हमारा इस या उस तरफ़ होना होता है सज़ा देने वाला बनना होता है
एक ऐसी फ़सल का बोना होता है जिसमें बालियां नहीं होतीं सुंडियां ही बस
एक दिन मैं भूल जाऊंगा क्योंकि यही मेरी प्रकृति है लेकिन मैं क्षमा नहीं दूंगा
क्षमा देने से सत्ता बनती है समभाव नहीं
उदात्तता नहीं क्षुद्रता की स्थापना की राजनीति है यह
सो हम दोनों ही ग़लतियां करेंगे उसके लिए न लड़ेंगे न माफ़ ही करेंगे
कुछ यूं करेंगे एक-दूसरे का परिष्कार हम
इसीलिए जब भी मैं पीड़ा की बात करता हूं उसमें कल्पना भी मिलाता हूं
कुछ तो कम हो ही जाती है इससे ख़ालिस वह मेरी अपनी नहीं रह जाती
किस गुरु से सीखा मैंने यह उद्घोष:
पीड़ाओं को उनकी औक़ात बता दूंगा एक बार लिखकर उनको ख़त्म कर दूंगा