छिड़ता युद्ध
बिखरता त्रासद
इंसां रोता है
जन संशय
त्रासदी ओढ़कर
आगे आया है
महानाश का
विकट राग फिर
युग ने गाया है
पल में नाश
सृजन सदियों का
ऐसे होता है
बाट जोहती
थकित मनुजता
ले टूटी कश्ती
भय की छाया
व्यथित विकलता
औ फाकामस्ती
दंभ जनित
कंकाल सृजन के
कोई ढोता है
उठो मनुज
रोकनी पड़ेगी, ये
पागल आंधी
आज उगाने होंगे
घर घर में
युग के गांधी
मिलता व्योम
विरासत में, युग
जैसा बोता है