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आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा पंकज

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स्मृतियों के आईने में -- आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ भूजेन्द्र आरत

30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली के प्रार्थना सभागार से निकलते समय कर दी गई थी। इससे सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौ़ड़ गई। संताल परगना जिले (अब प्रमंडल) का छोटा-सा गाँव सारठ वैचारिक रुप से प्रखर गाँधीवादी तथा राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा ताल्लुक रखने वाला गाँव के रूप में चर्चित था। इस घटना का सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। सारठ क्षेत्र के ग्रामीण शोकाकुल हो उठे। 31 जनवरी, 1948 को राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह विद्यालय, बमनगावाँ के प्रांगण से छात्रों, शिक्षकों, इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ हजारों ग्रामीणों ने गमगीन माहौल में बापू की शवयात्रा निकाली थी, जो अजय नदी के तट तक पहुंचीं। अजय नदी के पूर्वी तट पर बसा सारठ गाँव के अनगिनत लोग श्मसान में एकत्रित होकर बापू की प्रतिकात्मक अंत्येष्टि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। मैं उस समय करीब 8-9 वर्ष का बालक था, हजारों की भीड़ देखकर, कौतुहलवश वहाँ पहुंच गया। उसी समय भीड़ में से एक गंभीर आवाज गूंजी कि पुज्य बापू के सम्मान में ’पंकज’ जी अपनी कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। इसके बाद भीड़ से निकलकर धोती और खलता (कुर्ता) धारी एक तेजस्वी व्यक्ति ने अपनी भावपूर्ण कविता के माध्यम से पूज्य बापू को जब श्रद्धांजलि अर्पित की तो हजारों की भीड़ में उपस्थित लोगों की आंखें गीली हो गई। हजारों लोग सुबकने लगे। मुझे इतने सारे लोगों को रोते, कलपते देखकर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो गया है जो एक साथ इतने सारे लोग रो रहे हैं। कैसा अद्भुत था पंकज जी द्वारा अर्पित उस काव्य श्रद्धांजलि का प्रभाव ! उसी समय पहली बार मेरे बाल-मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर पंकज जी का नाम अंकित हो गया, जो कालांतर में उनसे मेरी अति निकटता के कारण, दिन-प्रतिदिन और मजबूत होता चला गया।


अब आईये हम आपको पंकज जी के पैतृक गाँव खैरबनी लिये चलते है। सारठ गाँव के उत्तर में एक जोर (छोटी पहाड़ी नदी) है, जिसका नाम ही है "बड़का जोर" यह जोर कुछ दूर जाकर अजय नदी में मिलती है। इसी जोर के उस पार, उत्तर दिशा में, एक छोटा सा गाँव है खैरबनी। इसी गाँव में आज से 90 वर्ष पूर्व वहां के घाटवाल ठाकुर वसंत कुमार झा जी के घर एक ’रत्न’ ने जन्म लिया जो आगे चलकर साहित्य एवं शिक्षा-जगत में आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ के नाम से विख्यात हुआ। आज से 90 वर्ष पूर्व सारठ क्षेत्र में एक प्राथमिक विद्यालय को छोड़कर और कुछ भी नहीं था। यह विद्यालय उस समय के सारठ के घाटवाल (जमींदार) के अहाते में चला करता था। इस अंचल के बच्चें अपनी प्राथमिक शिक्षा की जरूरतें इसी विद्यालय में आकर पूरी करते थे। मध्य-वित्त परिवार के बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा के लिये दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। जो बड़े गृहस्थ हुआ करते थे, वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिये देवघर भेजा करते थे। लेकिन देवघर जाकर शिक्षा ग्रहण करना इतना सुलभ और आसान नहीं था। उन दिनों देवघर-सारठ मार्ग में पाँच छोटी-छोटी नदियां मिलती थीं। बरसात में पानी से भरी होने के कारण आने-जाने के मार्ग को ये दुर्गम बना देती थी, लेकिन ऐसी विषम परिस्थियों में भी पंकज जी ने अपनी शैक्षणिक यात्रा देवघर हिन्दी विद्यापीठ के छात्र के रूप में वहां के शहीद आश्रम में रहकर प्रारंभ की, जहां से उन्होंने विद्यापीठ की उच्चतम उपाधि "साहित्यालंकार" प्राप्त की।


पंकज जी जब हिन्दी विद्यापीठ के छात्र थे, उन दिनों हिन्दी विद्यापीठ के शिक्षक के रूप में डॉ० लक्ष्मी नारायण सुधांशु (जो आगे चलकर बिहार विधान सभा के अध्यक्ष भी चुने गये थे), जनार्दन प्रसाद झा ’द्विज’ (बाद में पुर्णिया कॉलेज के प्राचार्य बने), बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ (जो बाद में बिहार विधान-परिषद् के सदस्य बने थे) जैसे विद्वान एवं ख्यातिलब्ध हस्तियां कार्यरत थी। ऐसे महान व्यक्तित्वों से सानिध्य में पंकज जी ने शिक्षा ग्रहण की और अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं मेधा के चलते अपनी अलग पहचान बनाने में ये कामयाब हुए। हिन्दी विद्यापीठ की उच्चतम उपाधि साहित्यालंकार हासिल करने के तुरंत बाद पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ में ही शिक्षक के रूप में नियुक्त हो गये और अपने गुरुजनों के सहकर्मी बन गये। पंकज जी ने अपने गुरुजनों की विद्वता का खूब लाभ उठाया और अपने ज्ञान को विस्तृत-क्षितिज देते हुए साहित्य की हर विधाओं पर अपना अधिकार सिद्ध किया। किसी भी विषय पर अपना आधिकारिक विचार रखने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, बल्कि विद्वत्-समुदाय में इनके आधिकारिक और मौलिक विचारों को पूर्ण सम्मान मिला।


ईश्वर ने उन्हें लगता है, प्राचीन आर्य परंपरा के अनुरूप उनका व्यक्तित्व ढाला था। किसी भी तरह के वैचारिक गोष्ठी / आयोजनों में अपने विचार रखते समय, उनका मुखमंडल दैदिप्यमान हो उठता था। हमेशा सकारात्मक सोच के धनी रहे पंकज जी किसी भी आयोजन (जिसमें वे सिरकत करते थे) में सहज ही श्रोताओं के आकर्षण बन जाते थे। अपने कथन में लोच एवं वाणी में मिठास के चलते इनकों सुनने वाले सहज ही आकर्षित हो जाते थे। एक बीती घटना मुझे स्मरण आती है जब सारठ के घाटवाल के कनिष्ठ पुत्र की शादी बाका के निकट जोगडीहा नामक ग्राम में तय हुई। उन दिनों शादी के समय कन्या पक्ष की ओर से महफिल लगाई जाती थी, जिसमें वैचारिक वाद-विवाद होता था। यह वाद-विवाद वर-पक्ष की विद्वता को मापने का मानदंड भी था। उस समय कन्या पक्ष की ओर से सवाल पूछने के लिये ख्यातिलब्ध विद्वानों को बुलाया जाता था जो वर पक्ष के लोगों से तर्कित सवाल पूछते थे, जिसका उत्तर वर पक्ष के विद्वानों को देना होता था। इसीलिये उस समय की बारात में विद्वत्जनों का जाना परमावश्यक माना जाता था। इस बारात में पंकज जी को भी सादर आमंत्रित किया गया था। पंकज जी भी बारात के साथ जोगडीहा गये थे। शादी के बाद संध्या समय महफिल सजी थी। दोनों पक्षों के विद्वान आमने-सामने थे। तभी कन्या पक्ष की ओर से भागलपुर से आये एक विद्वान ने प्रश्न पूछा -- "प्रणय के बाद परिणय या परिणय के बाद प्रणय ?" बारात में आये लोग एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। कुछ देर के लिये महफिल में सन्नाटा पसर आया। कन्या पक्ष के लोग प्रसन्न थे कि बारातियों की ओर से उनके प्रश्न का उत्तर नहीं आ रहा है। तभी बारातियों की ओर से स्वयं पंकज जी खड़े हुए और पूरे घंटे भर पूरे विस्तार से प्रश्न का तार्कित उत्तर दिया। बाराती में गये लोग ताली बजाने लगे और कन्या पक्ष के लोग मौन हो गये। स्वयं घाटवाल ने उठकर पंकज जी को गले लगा लिया। विद्वता का यह अलग रूप था -- पंकज जी का।


कालांतर में पंकज जी ने अपनी शैक्षणिक यात्रा को आगे बढ़ाते हुए पुन: मैट्रिक, इंटरमीडिएट, बी० ए० एवं एम० ए० की उपाधि हासिल की। तत्पश्चात 1954 में वे एस० पी० कॉलेज दुमका के संस्थापक शिक्षक सह हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए और दुमका को उस क्षेत्र की हिन्दी साहित्य की गतिविधियों का केंद्र बना दिया। इसके कुछ वर्षों बाद देवघर कॉलेज से आई० ए० की परीक्षा पास करने के बाद दुर्गा पूजा एवं दिवाली की छुट्टियों के बाद 1958 में मैंने एस० पी० कॉलेज दुमका में बी० ए० में अपना नामांकन कराया। उन दिनों एस० प० कॉलेज जिला स्कूल दुमका के परिसर में ही चलता था। जब स्कूल का दिवाकालीन सत्र होता था तब कॉलेज प्रात:कालीन सत्र में चलता था और जब गरमी के दिनों में विद्यालय का सत्र प्रात:कालीन होता तब कॉलेज का सत्र दिवाकालीन हो जाता था। हिन्दी विषय रखने के कारण मैं भी पंकज जी का छात्र बना। सफेद खालता (कुर्ता) एवं धोती में पंकज जी कक्षा लेने आते थे। अन्य लड़कों के बीच मैं नया होने के कारण अजनबी था। और देर से नामांकन कराने के कारण मेरा क्रमांक भी अंतिम था। उन दिनों व्याख्यातागण प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत जानकारी रखते थे। उन्होंने मुझसे भी मेरे बारे में जानकारी चाही। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं सारठ ग्राम का निवासी हूं और हरनारायण प्रसाद का पुत्र हूं तो वे मंद-मंद मुस्कुराते रहे और उन्होंने मुझको शिक्षक कक्ष में मिलने को कहा। व्याख्याता के रूप में वे हमें काव्य-खंड पढा़ते थे। ऐसे तो पूरे काव्य खंड में पाठ्यक्रम के अनुसार चयनित भक्तिकाल ही पढ़ाया करते थे, पर जब सूरदास की बाललीला तथा भ्रमरगीत पढा़ते थे तो मुझे अनुभव होता था जैसे हम सभी भ्रमरगीत के रचनाकाल में पहूंच गये हैं। अध्यापन में इतनी तन्मयता फिर अपने शैक्षणिक काल के दूसरे व्याख्याता में कभी नहीं देखी। वे स्वयं तो भाव-विभोर होते ही थे, छात्रों को भी भाव-विभोर कर देते थे। उनके व्याख्यान में शब्दों का चयन सटीक एवं वेजोड़ हुआ करता था। घंटी अवधि कैसे बीत जाती थी पता ही नहीं चल पाता था। वर्ग में उनका प्रवेश घंटी लगने के बाद तुरंत हो जाता था। वे स्वयं अनुशासनप्रिय थे और अपने छात्रों से भी ऐसी ही अपेक्षा करते थे।


समर्पित शिक्षक के रूप में उनके व्यक्तित्व की झलक देने वाली एक घटना की चर्चा करना मैं प्रासंगिक समझता हूं। उन दिनों महाविद्यालयों में ’टर्मिनल’ परिक्षाएं हुआ करती थी। पता नहीं आजकल होती भी है या नहीं? मैं परीक्षा में सम्मिलित हुआ। उत्तर पुस्तिकाओं की जांच वे वर्ग में ही छात्रों के नजदीक जाकर करना पसंद करते थे ताकि उत्तर लेखन में छात्रों द्वारा जो कमी रह गयी है उसे वे छात्रों के सामने ही सुधार की नसीहतों के साथ उसके आदर्श उत्तर भी छात्रों को बता दिया करते थे, ताकि छात्र भी सुधार की प्रक्रिया में सीधे तौर पर भागी बन सकें। साथ ही वे छात्रों को यह भी बताते थे कि अमुक प्रश्न का आदर्श उत्तर कैसे लिखा जा सकता है। मेरे द्वारा लिखी गई उत्तर पुस्तिका की जांच के क्रम में मैं देख रहा था -- वे धीरे-धीरे माथा हिला रहे थे और वाह! वाह! भी कह रहे थे। उत्तर पुस्तिकाओं की जांच पूरी करने के बाद उन्होंने मुझे अपने नजदीक बुलाकर कहा -- "मैं तुम्हारी ही उत्तर पुस्तिका की जाँच कर रहा था। तुमने अमुक कवि की जो काव्यगत विशेषता लिखी है वह बेजोड़ है। यह तुमने कहाँ से पढ़ लिया है" और जब मैने इसका स्रोत बताया तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और मुझे कुछ हिदायतों के साथ अधिक अंक लाने के उपाय भी बतलायें। मैं उनका स्नेहभाजन तो था ही इस घटना के बाद मैं उनका अति स्नेहभाजन बन गया। और स्नेह की यह डोर कॉलेज की पढा़ई पूरी करने के बाद भी बनी रही।


दुमका में उन दिनों प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ’रामायण यज्ञ’ हुआ करता था। यह यज्ञ सप्ताह भर चला करता था। इसमें भारत के कोने-कोने से रामायण के प्रकांड पंडित एवं विद्वान अध्येताओं को यज्ञ समीति द्वारा आमंत्रित किया जाता था। यज्ञ स्थल जिला स्कूल के सामने यज्ञ मैदान हुआ करता था। यज्ञ स्थल पर सायंकाल में प्रवचन का कार्यक्रम होता था। विन्दु जी महाराज, करपात्री जी, शंकराचार्य जी एवं अन्य ख्यातिलब्ध विद्वान यहां प्रवचन किया करते थे। एक दिन मैं यहां केवल एक रामायण के अध्येताओं का प्रवचन संभव हो पाता था। इस कार्यक्रम में जहां देश के कोने-कोने से प्रकांड रामायणी अध्येताओं का प्रवचन होता था वहीं सप्ताह की एक संध्या पंकज जी के प्रवचन के लिये सुरक्षित रहती थी। ऐसे थे हमारे पंकज जी और उनका प्रवचन! हजारों श्रोताओं के बीच पंकज जी के मुख से नि:सृत रामकथा उपस्थित लोगों का मन मोह लेती थी। यह असाधारण बात पंकज जी के व्यक्तित्व, वक्तृत्व कला और अगाध ज्ञान का सहज पहलू था। हम छात्रों और दुमका वासियों के लिये तो सचमुच यह गौरव की बात थी कि इतने उद्भट्ट विद्वान हमारे अपने पंकज जी थे।


पंकज जी की सम्मोहन कला का एक और संदर्भ। 1964 की बात है। दुर्गापूजा की छुट्टियों के बाद सारठ अस्पताल के डॉ० साहिब के घर हिन्दी के सुविख्यात विद्वान डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव अपने परिवार के साथ आये थे। डॉ० साहिब के वे आत्मीय परिजन थे। डॉ० साहिब ने मुझसे कहा -- डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव जी आये है, कोई कार्यक्रम का आयोजन करवा दे । फिर दो-तीन दिनों के बाद तुलसी जयन्ती का आयोजन सारठ मध्य विद्यालय के बरामदे पर किया गया। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की बड़ी ख्याति थी। वे राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने देश-विदेश का भ्रमण किया था। उनके पुत्र शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव पटना में अध्ययनरत थे जो बाद में पटना विश्वविद्यालय के कुलपति एवं पटना के सांसद भी निर्वाचित हुए और डॉ० शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव के नाम से हिन्दी साहित्य संसार में प्रसिद्ध हुए तथा कई मानक पुस्तकों की समालोचना भी लिखी। आयोजन से पूर्व श्रद्धेय पंकज जी दुमका से अपने गांव छुट्टियों में आये थे। मैने तुलसी जयन्ती के बावत उनसे बात की। वे बैठक में भाग लेने के लिये राजी हो गये। नियत तिथि को अपराह्न तुलसी जयन्ती का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। बैठक में स्वनामधन्य वासुदेव बलियासे, गोविन्द प्रसाद सिंह, उमाचरण लाल, सच्चिदानंद झा सहित कई विद्वान एवं सैकड़ों श्रोता उपस्थित हुए। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की पत्नी ने दीप प्रज्वलित कर तुलसीदास के चित्र पर माल्यार्पण किया और "ठुमकि चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां" गाकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। दो व्यक्तियों, वासुदेव बलियासे एवं सच्चिदानंद झा ने क्रमश: संस्कृत के श्लोकों के साथ साहित्य की चर्चा करते हुए तुलसी कृत "रामचरित मानस" के कई प्रसंगों पर अपने सारगर्भित विचार रक्खें। मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने देश-विदेश में प्रचलित रामकथा एवं रामायण के प्रसंगों की विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की और अपने अगाध ज्ञान का परिचय दिया। अंत में बठक की अध्यक्षता कर रहे पंकज जी ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें उन्होंने डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की मुक्त कंठों से प्रशंसा करते हुए उन्हें रामकथा का अधिकारी विद्वान बताया और डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव के व्याख्यान को सारठ की जनता के लिये एक अवदान माना। इस तरह डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव के रामकथा विषयक अगाध ज्ञान और उनकी विद्वता को सादर रेखांकित करने के बाद पंकज जी ने अपना वक्तव्य शुरू किया। अपने भाषण में पंकज जी ने रामचरित मानस द्वारा समाज में समन्वय की विराट चेष्टा का आधार फलक रखा और तुलसी को सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित करते हुए उनकी कई चोपाईयों को उद्धृत किया और अपनी मान्यता की संपुष्टि हेतु विस्तृत भाषण दिया तथा तुलसी के संदेशों को उपस्थित श्रोताओं के समक्ष अपनी अनूठी शैली में रखा। हम सभी मंत्रमुग्ध होकर पंकज जी का सरस, सारगर्भित और गूढ़ संभाषण सुन रहे थे। ऐसे लग रहा था कि पंकज जी अपनी कक्षा में थे और उपस्थित समूह उनके व्याख्यान को सुध-बुध खोकर सुन रहा था। उनके संभाषण की समाप्ति के बाद पुन: डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव उठ खड़े हुए और पंकज जी के द्वारा व्यक्त किये गये विचारों तथा उनकी वक्तृत्व कला की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने पंकज जी को रामचरित मानस का अधिकारी विद्वान और महान अध्येता घोषित किया। हम सब के लिये यह गर्व था कि हम सब उस क्षण के साक्षी बन रहे थे जब दो उद्भट्ट विद्वान एक-दूसरे की विद्वता पर मुग्ध थे और एक दूसरे के कायल थे। पंकज जी ने हर बार की तरह इस बार भी अपनी विद्वता से हम सारठ वासियों का सिर गर्वोन्नत्त कर दिया था।


अंत में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन की चर्चा करना चाहता हूं। 13 फरवरी 1965 को दुमका में यह अधिवेशन आयोजित किया गया था। समूचे बिहार से ख्यातिलब्ध लेखकों, कवियों और समीक्षकों का आगमन दुमका में हुआ। संताल परगना हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन अध्यक्ष पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ जी थे। संताल परगना जिले की ओर से तत्कालीन उपायुक्त श्री रासबिहारी लाल, जो स्वयं चर्चित नाटककार एवं साहित्यकार थे, इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। साहित्यिक अभिरूचि के प्रशासनिक पदाधिकारी होने की वजह से साहित्य जगत में भी उनका बड़ा सम्मान था। स्वागताध्यक्ष के रूप में श्री रास बिहारी लाल जी ने अपने स्वागत भाषण में सर्वप्रथम पं० शुद्धदेव झा ’उत्पल’ जी एवं आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी का ही नामोल्लेख किया था। निश्चय ही यह बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि जिन साहित्यिक लेखकों और कवियों ने इस समागम में भाग लिया था उनमें से सभी स्थापित एवं ख्यातिलब्ध थे। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, हंस कुमार तिवारी, गोवर्धन सदय, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, नागार्जुन, बुद्धिनाथ झा ’कैरव’, प्रफुल्ल चन्द्र पटनायक, उमाशंकर, रंजन सूरीदेव, दुर्गा प्रसाद खवाड़े, श्याम सुंदर घोष, डोमन साहु ’समीर’, ’ज्योत्सना’ के संपादक शिवेन्द्र नारायण एवं अन्य अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार उपस्थित थे। उसमें मैं भी एक अदना-सा व्यक्ति शामिल था। दूसरे दिन एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया जिसमें हमारे पंकज जी भी प्रमुख कवि के रूप में शामिल थे। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इस अधिवेशन में अन्य बड़े विद्वानों और साहित्यकारों की तरह पंकज जी भी एक बड़े विद्वान के रूप में आकर्षण के एक प्रमुख केंद्र थे।


पंकज जी जैसे विद्वान साहित्यकार, शिक्षाविद भले ही शारिरिक रूप से इस चराचर जगत में मौजूद नहीं है लेकिन उनकी कृतियां और उनका व्यक्तित्व इस संसार में हमेशा मौजूद रहेगा तथा पंकज जी के दिखाए रास्ते, उनकी सादगी, उनकी सहृदयता, उनकी विद्वता और छात्र हित का उनका दृष्टिकोण हमेशा अनुकरणीय रहेगा।


शिक्षा समाप्ति के बाद मैं सरकारी सेवा में चला आया। तत्कालीन बिहार राज्य के विभिन्न जिलों में पदस्थापित रहा। इस कारण पंकज जी से सम्पर्क काफी कम हो गया, लेकिन आत्मीयता बनी रही। हठात् एक दिन समाचार प्राप्त हुआ कि आदरणीय पंकज जी इस नश्वर संसार को अल्पायु में ही छोड़ गये है। यह हमारे लिये असह्य पीड़ा थी। संताल परगना के पूरे साहित्यिक एवं शैक्षणिक जगत पर मानो वज्रपात हो गया था। करीब 32 वर्षों के अंतराल के बाद विगत 30 जून 2009 को दुमका में आयोजित "आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ 90वीं जयन्ती समारोह" में भाग लेने हेतु जब मुझे आमंत्रित किया गया तो सहसा वर्षों पुरानी यादें मानस पटल पर रील की भांति घुमने लगी और पुरानी स्मृतियों में मैं आकंठ डुब गया। अगर इतने वर्षों के बाद भी हम सभी इस महान विभुति -- पंकज जी की अमूल्य धरोहर को सहेज नहीं पाये तो वर्तमान एवं भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। अभी भी उनकी यादों को सहेजने के लिये बहुत कुछ किया जाना शेष है। अगर हम उनकी रचनाओं का ’पंकज-ग्रंथावली’ के रूप में प्रकाशित करने, संताल परगना के एक साहित्यकार को पंकज-स्मृति के सम्मान से सम्मानित करने तथा दुमका विश्वविद्यालय में हिन्दी विषय के सर्वश्रेष्ठ छात्र को पंकज छात्रवृत्ति प्रदान करें तो उनकी यादों को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। इस दिशा में हम कुछ भी सार्थक प्रयास कर सके तो हमारे लिये यह गौरव की बात होगी और पंकज जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।