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चलो / अशोक तिवारी

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चलो


रचनाकार=अशोक तिवारी

 
चलो ......
चलो कि चलना ही जीवन है
चलो कि चलना ही हासिल है
ज़िन्दगी मैं जुड़ते जा रहे पलों का
चलो कि चलना है मंजिल पर पहुँचने क़ी
एक हसीन हसरत
चलो कि चलना इस बात का है
पुख्ता सबूत
कि ठहरे नहीं हो तुम

चलो कि चलना लक्षण है उस संस्कृति का
ठहर नहीं सकती जो ---
उस तहजीब का
जो दी जाती है एक बच्चे को
बगैर किसी ऊच-नीच के
चलना है बहती हुई हवा को
अपने होने का अहसास कराना

चलो कि चलना खोलना है
बंद होते जा रहे खिड़की के सभी झरोखे
चलना है उन्हीं झरोखों से झांकती रौशनी को अपने अंदर भरना

चलो कि चलना
बनना है नदी के उस पानी कि तरह
बहता जाता है जो निश्छलता के साथ
अपने उद्दाम वेग से
पहाड़ों के बीच

चलो कि चलना इस बात की है निशानी
कि हारे नहीं हो तुम
उठ सकते हो बार- बार गिरकर भी

चलो कि चलना जूझना है
उलटी बह रही हवाओं से
और मोड़ना है अपनी दिशा में
अपनी बाजुओं की ताक़त के बल पर
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