किनारे के पेड़ वही हैं
बस थोड़े सयाने हो गये हैं
ब्याह करने लायक बच्चों की तरह
पहले से ज्यादा चुप हैं तपस्वी बरगद
हवा चलने पर सिर्फ उकसी जटायें
लहराती हैं कभी-कभी
खम्हार के पके पत्तों-सी
धीरे-धीरे हिल रही है दोपहर
घर वही हैं
लेकिन कुछ गिर गये हैं
कुछ बन गये हैं नये
इन पुराने रास्तों को
हाय! मैं आज तक नहीं भूला
जो नये रास्तों में भी लगातार
मेरे साथ चलते रहे
वैसी ही महीन और मुलायम है रास्ते की धूल
पांव पड़ते ही उठती है
जैसे चौंककर पूछती हो-भैया!
कहां रहे इतने दिन?
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