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मैं तथा मैं (अधूरी तथा कुछ पूरी कविताएँ) - 23 / नवीन सागर

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क्‍यों मैं एक घेरे के बाहर
सोच नहीं पाता!
क्‍यों दिमाग मेरा अड़बड़ चीजों का कबाड़ है!
क्‍यों मन मेरा हर चीज पर जाता है
क्‍यों पिछले मजे जिंदगी के अच्‍छे लगते हैं
क्‍यों कुछ भी प्राणों से बड़ा नहीं.

क्‍यों मैं अकेला
धीरे-धीरे अकेला टूटता हूं
क्‍यों दुख किसी का छूता नहीं हृदय मेरा!
क्‍यों भावना नकली अपनी और पुरानी लगती है
ढली हुई सी सख्‍त आवाज मेरी क्‍यों
मेरी ही आवाज में डूब मरती है!

क्‍यों मैं सवाल करता हूं
और रह जाता हूं सवाल करके मैं!