Last modified on 5 मई 2010, at 20:14

चींटियाँ / अशोक तिवारी

Ashok Tiwari (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 5 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक तिवारी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> चढ़ रही हैं लगात…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


चढ़ रही हैं लगातार
दीवार पर बार-बार
आ रही हैं
जा रहीं हैं
कतारबद्ध चींटियाँ

ढो रही हैं अपने घर का साजो सामान
एक नए घर में
आशा और उम्मीद के साथ
गाती हुई
ज़िन्दगी का खूबसूरत तराना
इकट्ठी करती हुई
ज़रुरत की छोटी से छोटी
और बड़ी से बड़ी चीज़
बनाती हुई गति और लय को
अपनी जिंदगी का एक खास हिस्सा

अपने घर से
विस्थापित होती हुई चींटियाँ
चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में
किसी भी शिकवा शिकायत के बगैर

पुराने घर की दीवारों से गले लगकर
रोती हैं चींटियाँ
बहाती नहीं हैं पर आंसू
दिखाती नहीं हैं आक्रोश
प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा
जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त

मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगंध
सूंघती हैं चींटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने
हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समय में भी
उखड़ती नहीं है उनकी साँस
मसल दिए जाने के बाद भी
उठ खड़ी होती हैं चींटियाँ
लगे होते हैं उनके पैरों में डायनमो
चलते रहने के लिए
बढ़ने के लिए आगे ही आगे
पढ़ती हुई हर खतरे को
जूझती हैं चींटियाँ

जानती हैं वो आज़माना
मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!!

रचनाकाल : 5 सितम्बर, 2003