Last modified on 8 मई 2010, at 16:11

मदसूर्य / लीलाधर मंडलोई

Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:11, 8 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीलाधर मंडलोई |संग्रह=मगर एक आवाज / लीलाधर मंडलो…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बचते हुए दौड़ते बचाए सिर अपना और अब फूट पड़ना चाहते अनुभव से बाहर जुगत सबरी-सब निरूपाय एकदम अलहदा मदराग में बेइंतहा अधैर्य

अद्विग्‍नता इस कदर कि कराह उठे पेड़ की कटीली देह तक छलक पड़ता था जरा सी रगड़ से रक्‍त अब अनथक रगड़ रहे बेकाबू धाराएं फूट कहीं धरती को भिगोती रोज निष्फिकरी के आनंद में अभिनंदन इतना कि फूट पड़ें श्रृंग बनते अनुपम शिरस्‍त्राण

अलमस्‍ती में डूबा मदकाल का मुहूर्त निर्द्वन्‍द्व घूमते झुंडों में बढ़ रहा है बेकाबूपन और बिखर रहा पत्‍थरों, पत्‍तों, पेड़ों, चट्टानों पर रक्‍ताभ

डूबा हूं मैं मदकाल के निनादों में कि मुझ तक आ रही है गंध कि मुझमें जाग रहा है राग कि मैं दौड़ रहा हूं अपने से बाहर कि मुझमें उग रहे हैं श्रृंग कि मुझमें दौड़ रहा है बारहसिंगा