Last modified on 17 मई 2010, at 20:34

नींद-4 / प्रदीप जिलवाने

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:34, 17 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप जिलवाने |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कभी नींद आदमी…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी नींद आदमी को उठाकर
इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देती है
तो कभी छोड़ आती है
भविष्य की अंतहीन संकीर्ण गलियों में।
जहाँ से लौटता है आदमी पसीने-पसीने
एक चौंक या बड़ी शर्म के साथ
अपने चेहरे पर महसूसता है
उभर आई विकृतियाँ
जो समय अपने चेहरे से उतार
उसके चेहरे पर चस्पा कर देता है धोखे से।

नींद के बारे में
कई तरह के सच और अफवाहों के बीच
एक सच यह भी कि नींद जरूरी है
लेकिन दोस्त
नींद में होना एक बड़ी ‘रिस्क’ है
खासकर इस दौर में।