Last modified on 24 मई 2010, at 12:27

शब्‍द-शर / हरिवंशराय बच्‍चन

Tusharmj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 24 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्‍चन }} लक्ष्‍य-भेदी शब्‍द-शर बरसा,…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


लक्ष्‍य-भेदी

शब्‍द-शर बरसा,

मुझे निश्‍चय सुदृढ़,

यह समर जीवन का

न जीता जा सकेगा।


शब्‍द-संकुल उर्वरा सारी धरा है;

उखाड़ो, काटो, चलाओ-

किसी पर कुछ भी नहीं प्रतिबंध;‍

इतना कष्‍ट भी करना नहीं,

सबको खुला खलिहान का है कोष-

अतुल, अमाप और अनंत।


शत्रु जीवन के, जगत के,

दैत्‍य अचलाकार

अडिग खड़े हुए हैं;

कान इनके विवर इतने बड़े

अगणित शब्‍द-शर नित

पैठते है एक से औ'

दूसरे से निकल जाते।

रोम भी उनका न दुखता या कि झड़ता

और लाचारी, निराशा, क्‍लैव्‍य कुंठा का तमाशा

देखना ही नित्‍य पड़ता।


कब तलक,

औ' कब तलक,

यह लेखनी की जीभ की असमर्थ्‍यता

निज भाग्‍य पर रोती रहेगी?

कब तलक,

औ' कब तलक,

अपमान औ' उपहासकर

ऐसी उपेक्षा शब्‍द की होती रहेगी?


कब तलक,

जब तक न होगी

जीभ मुखिया

वज्रदंत, निशंक मुख की;

मुख न होगा

गगन-गर्विले,

समुन्‍नत-भाल

सर का;

सर न होगा

सिंधु की गहराइयें से

धड़कनेवाले हृदय से युक्‍त

धड़ का;

धड़ न होगा

उन भुजाओं का

कि जो है एक पर

संजीवनी का श्रृंग साधो,

एक में विध्‍वंस-व्‍यग्र

गदा संभाले,

उन पगों का-

अंगदी विश्‍वासवाले-

जो कि नीचे को पड़ें तो

भूमी काँपे

और ऊपर को उठें तो

देखते ही देखते

त्रैलोक्‍य नापें।


सह महा संग्राम

जीवन का, जगत का,

जीतना तो दूर है, लड़ना भी

कभी संभव नहीं है

शब्‍द के शर छोड़नेवाले

सतत लघिमा-उपासक मानवों से;

एक महिमा ही सकेगी

होड़ ले इन दानवों से।