Last modified on 24 मई 2010, at 12:35

आकांक्षा / लाल्टू

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 24 मई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मन
हो इतना कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा जीवन

हो इतना चंचल
गुजर तो फूटे
हँसी की धार
हर दो आँख कल कल

डर तो डरे जो कुछ भी जड़
प्रहरियों की सुरक्षा में भी
डरे अकड़
खिल हर दूसरा खिले साथ
बढ़ बढ़े हर प्रेमी की नाक
हर बात की बात
बढ़े हर जन
ऐसा ही बन

कुछ बनना ही है
तो ऐसा ही बन।