मानस-चतुश्शती की सन्निधि में
जब अपनी तुलना करता हूँ मैं कवि तुलसीदास से
लगता है कुछ दूर नहीं हूँ उनके काव्य-विकास से
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किन्तु एक अंतर छोटा-सा जब आता है ध्यान में
तुलसी और स्वयं में पाता हूँ कितना व्यवधान मैं
एक बार ही उपालम्भमय सुन पत्नी की झिड़कियाँ
कवि ने सब कुछ छोड़, गेरुआ और कमंडल धर लिया
और यहाँ प्रतिनिमिष बिंधा भी प्रिया-व्यंग्य-विष-बाण में
अस्थि-चरम से लिपटा हूँ मैं जूँ न रेंगती कान में