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जहाँ कभी आया नहीं / नवीन सागर

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गरदन झुकाए बरसों
दरवाज़े से निकलने
और दस्‍तक देने लगा

बहुत धुँधले दिनों में
अपना नाम
किसी और का लगा
मैं जब कोई और लगा
जब ख़ुद को
रोक कर अकेले में
मैंने पूछा-कौन हो यहाँ!
छुड़ाकर ख़ुद से हाथ
अंधेरे में उतर गया
जिसमें एक ढहती हुई दीवार उठ रही थी
मैं तब कोई नहीं था अकेले में
छेद से रिसता हुआ
कहाँ-कहाँ रह गया जीवन!

जहाँ कभी आया नहीं
मेरा जीवन इस तरह बिखरा हुआ सामान था।
कि मैं अंतिम कुली हूँ
और उसे छोड़कर जा रहा हूँ।