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ज़िन्दगी हमारे लिए आज भार हो गई! / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

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ज़िन्दगी हमारे,
लिए आज भार हो गई!
मनुजता की चूनरी,
तो तार-तार हो गई!!

हादसे सबल हुए हैं
गाँव-गली-राह में,
खून से सनी हुई
छुरी छिपी हैं बाँह में,

मौत ज़िन्दगी की,
रेल में सवार हो गई!
मनुजता की चूनरी,
तो तार-तार हो गई!!

चीत्कार, काँव-काँव,
छल रहे हैं धूप छाँव,
आदमी के ठाँव-ठाँव,
चल रहे हैं पेंच-दाँव,

सभ्यता के हाथ,
सभ्यता शिकार हो गई!
मनुजता की चूनरी,
तो तार-तार हो गई!!