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चुप्पी / प्रज्ञा पाण्डेय

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ब्रह्माण्ड में बैठी है
जो चुप्पी
इसे आप नहीं जानते
यह बोलती तो है
पर
अपनी आवाज़ में

जैसे बच्ची
जब मारी गई हो
भ्रूण में ।
कि उसकी आवाज़ भरती है
गर्भ का
ओर-छोर !

ठीक दोपहर
यह चुप्पी
आ खड़ी होती है चौपाल में
धूप लू की तरह
बरसती है
ताबड़तोड़
करती है
लहू लुहान
मारती है
जाने कितनों को
बिना हर्फों की ये जुबान!

ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में
जैसे
हाशिये पर
रुक जाता है वक़्त
इस चुप्पी की खातिर
लोग गंगा में नहाते हैं
क़ि शायद
धुल ही जाए गर्भ का खून

पर वह धुलता नहीं
किसी तरह
चुप्पी बनाती जाती है
सन्नाटों के चक्रव्यूह !
चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !

इस चुप्पी को पीसता है
खेत में खडा बिजूका
जो आँधियों में
गिर गया है लगता!
चुप्पी तो साधती है मौन
और होती है युद्ध रत
निरंतर !

चुप्पी आत्महंता की
होती है खतरनाक
कहती है पूरी बात
करती है पूरा घात !