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परिणति / सुमित्रानंदन पंत

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स्वप्न समान बह गया यौवन
पलकों में मँडरा क्षण!

बँध न सका जीवन बाँहों में,
अट न सका पार्थिव चाहों में,
लुक छिप प्राणों की छाहों में
व्यर्थ खो गया वह धन,
स्वप्नों का क्षण यौवन!

इन्द्र धनुष का बादल सुंदर
लीन हो गया नभ में उड़कर,
गरजा बरसा नहीं धरा पर
विद्युत् धूम मरुत घन,
हास अश्रु का यौवन!

विरह मिलन का प्रणय न भाया,
अबला उर में नहीं समाया,
भीतर बाहर ऊपर छाया
नव्य चेतना वह बन,
धूप छाँह पट यौवन!

आशा और निराशा आई
सौरभ मधु पी मति अलसाई
सत्य बनी फिर फिर परछाँई,
तड़ित चकित उत्थान पतन
अनुभव रजित यौवन!

अब ऊषा शशि मुख, पिक कूजन,
स्मिति आतप मंजरित प्राण मन,
जीवन स्पंदन, जीवन दर्शन
इस असीम सौन्दर्य सृजन को
आत्म समर्पण!

अचिर जगत में व्याप्त चिरंतन
ज्ञान तरुण अब यौवन!