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पुरानी बावड़ी / मदन कश्यप

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(मुक्तिबोध को याद करते हुए)

यह कोई अत्यन्त पुरानी बावड़ी है
सामने का खंडहर कभी रहा होगा राजमहल
मिटे होंगे राजे-रानियाँ
फिर मिटी होंगी उनकी निशानियाँ
उनके स्पर्शों और स्मृतियों ने ही पहले पहल
दीवारों पर झाड़ियों के रूप में उगने की कोशिश की होगी

अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है
जो हुआ है वह भी कुछ इस तरह
कि हम उनका नष्ट होना महसूस कर सकते हैं
एक महल से ज्यादा भव्य होता है खंडहर
क्योंकि वह हमारी कल्पना को किसी एक दिशा में सीमित नहीं करता
उसकी भव्यता में एक उदासी भी होता है

लुप्त हो चुका है वह रास्ता
जो महल से इस बावड़ी तक आता था
फिर भी हम महसूस कर सकते हैं उसका होना
कान लगाने पर सुनाई पड़ती है रानियों की पदचाप
और उनकी लौंडियों की खिलखिलाहटें
जिनके भीतर होता था एक अश्रव्य भय का कंपन

जगह-जगह से उखड़ चुके हैं सीढ़ियों के पत्थर
और उग आई हैं झाड़ियाँ
इक्के-दुक्के जो बचे हैं वे भी काइयों और फिसलन से भरे हैं
पता नहीं इस ठहरे गंदले जल में
अब कितनी बची है रानियों की देहगंध
सेवारों की हरी चादर के नीचे
फल-फूल रहा है जोंकों का साम्राज्य
अब गंदगी और जोंक ही इस बावड़ी के रखवाले हैं

बारिश की कुछ बूँदें ही इसमें पड़ती हैं
जो चुपचाप इसके गंदे पानी में घुल जाती हैं
धूप बहुत कम इसके भीतर आ पाती है
और महज कदीम यादों को उड़ा ले जाती है
यहाँ तक पहुँचने के पहले
अपनी तासीर खो चुकी होती हैं ठंडी हवाएँ

ऐसा भी नहीं कि यहाँ जीवन की हलचल नहीं
मगर जो कुछ भी है वह वक्त और भाषा से परे है!