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गुनाह / मदन कश्यप

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बहुत दिनों तक तो विश्‍वास ही नहीं किया
पर दिन जब उसका होना पहचाना
वह बेहद आत्मीय और आकर्षक लगा
मेरी आत्मा के सबसे करीब
सितारों तक फेले मेरे अकेलेपन का अकेला गवाह

जब मैं रहता व्यस्त भीड़ की शुभाशंसाएं बटोरने में
वह दूर खड़ा मुस्कुराते हुए हिलाता रहता हाथ

मैं रहने लगा खुश-खुश कि कुछ है जो केवल मेरे पास है
जिसे केवल मैं जानता हूँ

कुछ दिनों बाद जब खुले कुछ-कुछ भेद
मैंने जोरदार कोशिश की सबको समझाने की
कि वह नहीं है
कि वह वह नहीं है
कि जो है वह गलत नहीं है

पर जब असफल हो गई तमाम दलीलें
अस्वीकृत हो गई सभी व्याख्याएँ
तो एक दिन निकल पड़ा
उस अनजाने मुल्क की अज्ञात यात्रा पर
इस विश्‍वास के साथ
कि ब्रह्माण्ड में अवश्‍य ऐसा कोई प्रक्षेत्र है
जहाँ गुनाह को लोग गुनाह नहीं समझते होंगे!