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निरूत्तर / मुकेश मानस

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निरूत्तर

प्रेम बन्दगी के
दुश्मन ज़िदगी के
आदमी को छांटते हैं
खून को ही बांटते हैं

स्याह होती भोर है
रक्षक ही चोर है
आदमी मशीन है
मालिक कमीन है

ये कैसा कानून है
अमानवी जुनून है
न्यायाधीश खुद डरे
करे तो कोई क्या करे

जन-जन में फूट है
कातिलों को छूट है
कवि चुपचाप है
तापहीन ताप है

अंधियारा मोड़ है
कहो क्या तोड़ है?

रचनाकाल:1997