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मुक्ति बंधन / सुमित्रानंदन पंत

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क्यों तुमने निज विहग गीत को
दिया न जग का दाना पानी
आज आर्त अंतर से उसके
उठती करुणा कातर वाणी!

शोभा के स्वर्णिम पिंजर में
उसके प्राणों को बंदी कर
तुमने क्यों उसके जीवन की
जीव मुक्ति ली पल भर में हर!

नीड़ बनाता वह डाली पर,
फिरता आँगन में कलरव भर,
उसे प्रीति के गीत सिखाने
दग्ध कर दिया तुमने अंतर!

उड़ता होता क्या न गगन में?
चुगता होता दाने भू पर
अपना उसे बनाने तुमने
लिए जीव के पंख ही कुतर!

क्यों तुमने निज गीत विहग को
दिया न भू का दाना पानी
उसके आर्त हृदय से फिर फिर
उठती सुख की कातर वाणी!