Last modified on 27 अप्रैल 2007, at 23:39

झूला झूलै री / माखनलाल चतुर्वेदी

Dr.jagdishvyom (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 23:39, 27 अप्रैल 2007 का अवतरण (New page: कवि: माखनलाल चतुर्वेदी Category:कविताएँ Category:माखनलाल चतुर्वेदी ~*~*~*~*~*~*~*~ स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कवि: माखनलाल चतुर्वेदी

~*~*~*~*~*~*~*~

संपूरन कै संग अपूरन झूला झूलै री।

दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।

गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में,

निकल पडें़गे डोले सखि अब भू में और गगन में,

ऋतु में ऋचा में किसके रिमझिम-रिमझिम बरसन,


झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री।

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।


रूठन में पुतली पर जी को जूठन डोलै री,

अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री,

करताल में बंध्यों न रसिया, वह तालन में दीख्यों,


भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।


नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री,

हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री,


आज प्राण ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो,

साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री।


दिन तो दिन, कलमंुही साँझ भी अब तो फूलै री,

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।