इधर पता नहीं हत्यारे को क्या हो गया थ
वह छोटी-छोटी बातों में भावुक होने लगा था
गालिब हो, फैज हो, निराला, नीरज हो
ओमप्रकाश भावुक हो, मोहनलाल 'अपराधी' हो
किसी की भी कविता सुनकर वह रोने लगा था
यहां तक कि हास्य कवियों की कविता सुनकर भी
वह रो देता
जिससे हास्य कवियों को अपनी कविता की अर्थवत्ता पर
शक सा होने लगा था
कभी चांद को खिला देखकर
तो कभी सूरज को उगता देखकर वह भावुक होने लगा था
यहां तक कि गरीबों को रिक्शा चलाते हुए देखकर
वह एक दिन रो पड़ा था
और एक रिक्शेवाले को सौ रूपए का नोट देकर चला आया था
लेकिन उसकी एक बात की सब तारीफ करते थे
कि इतना सबकुछ होने के बावजूद
उसके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया था
बल्कि इस बीच उसके विचारों में ज्यादा 'दृढ़ता' आई थी
वह मार दो, गिरा दो, काट दो, जला दो, भून दो, घुसेड़ दो, उधेड़ दो
आदि फैसले पहले से ज्यादा फुर्ती से लेने लगा थ
उसके सेवक इशारे में कहते, सर ऐसा करने से पहले
एक बार सोच लेना क्या ठीक नहीं होगा?
तो वह कहता था, मैंने कहा है न, तो करो
मैंने आज तक बिना सोचे-समझे, न कुछ कहा है, न किया है.
इधर उसके खानपान में एक जबरदस्त परिवर्तन देखने को मिला था
वह शुद्ध शाकाहारी, लहसुन-प्याज रहित भोजन करने लगा था
और शाकाहार का एक तरह से वह स्वनियुक्त ब्रांड एंबैसेडर
बन चुका था
शराब तो खैर उसने पहले भी कभी नहीं पी
इधर हनुमानजी का जबरदस्त फैन हो जाने के बाद
वह औरतबाजी से भी परहेज करने लगा था
वैसे करता भी था, तो कहता था
कि ये मेरे सत्य के अभिनव प्रयोग मात्र हैं
ईश्वर में उसका विश्वास इतना दृढ़ हो चुका था
कि ईश्वर का भी आत्मविश्वास डगमगाने लगा था
हत्यारा इधर अपने नाते-नातिन, पोते-पोतियों को इतना चाहने लगा था
कि उसके बेटे-बेटियों को भी उसके इरादों पर
शक होने लगा था
वे लगातार किसी-न-किसी बहाने नजर रखते थे अपने बच्चों पर
और तो और वह जनता को भी अब ज्यादा प्यारा लगने लगा था
यहां तक कि वह चाहता तो जनता उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी
नवाज सकती थी
मगर वह तो बुद्ध या महात्मा गांधी में से एक
या इनका टू इन वन होने की छवि बनाने में लगा था
और कभी निर्वाण प्राप्त करने
कभी अपना नाथूराम गोडसे ढूंढने में लगा था
जबकि नाथूराम गोडसे उससे
अपने प्राण बचाने में लगा था
वह जानता था, यह महात्मा गांधी नहीं है
यह चाहेगा तो मुझे मिनटों में खड़े-खड़े निबटवा देगा
और शोक व्यक्त करने भी मेरे घर सबसे पहले यही पहुंचेगा.