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तसल्ली / परवीन शाकिर

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अब जब मैं अपने आप पे
शहर-ए-वफ़ा का हर दरवाज़ा
अपने हाथों बंद कर आई,
और उनमें हर एक की चाबी
सब्ज़ आँखों वाले निस्यान<ref>विस्मृति</ref> के सर्द समंदर में फेंक आई हूँ
डरा-डरा-सा ये एहसास भी
कितनी ठंडक देता है
ज़िंदां<ref>क़ैदख़ाना</ref> की ऊँची दीवार से दूर
पुराने शहर की एक छोटी-सी गली में
एक दरीचा
मेरे नाम पे भी खुला रहेगा


शब्दार्थ
<references/>