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किंकर्तव्यविमूढ़ / विजय कुमार पंत

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मैं किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया
जो रहस्य था ज्ञात किया इतने यत्नों से
वही पुनः फिर गूढ़
हो गया
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया
धधक रही है रोम रोम में
भीषण ज्वाला
गरल बिना गटके ही, चंद्रचूड
हो गया
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया
वेद, ग्रन्थ ज्ञान कि बातें
तुझसे संबंधो के नाते
अभ्यासों में डूब डूब कर मूढ़
हो गया
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया
अर्थो संदर्भो से सीखे कई व्याकरण
विश्वासों में जकड अकड़ कर रूढ़
हो गया
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया...