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तुम्हारे लिए / सुशीला पुरी

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काश... कि
मै बनाऊँ आकर
चाय तुम्हारे लिए
कम चीनी की और कहूँ
अच्छे बच्चे देर तक नही सोते
 
बेल सकूँ बिलकुल गोल रोटी
पृथ्वी की तरह
सिर्फ तुम्हारे लिए
 
पोंछ सकूँ आइने का चेहरा
जिसमे जब तुम देखते हो तो
मै झाँकती हूँ चुपके से
और फेंक सकूँ सूखे फूल
गुलदान से तुम्हारी मेज़ के
 
लगा सकूँ उसमे
रोज़ एक ताज़ा
पीला गुलाब...
काश... कभी ।