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हाँफता पढ़ता हूँ / मलय

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चिलकती रहती है
भरी दोपहरी
छाती पर बिछे हैं
रेत भरे
सूखे मैदान

अंदर की नदी
खौलती रहती
बेचैनी की बाँहें बढ़तीं
चौड़ाती ही जातीं हैं
आसपास तक जाकर
चीज़ों के

आँखों में चिलकता मैदान
कानों में फड़फड़ातीं
आँधियों की
ज़िरह का सामना

खुला तो
इस तरह आसमान
कि अपने ही
चेहरे पर झुर्रियाँ
विंध्य पर्वत-सतपुड़ा की श्रेणियाँ
सीढ़ियाँ
पसुलियों की
चढ़-चढ़ कर हाँफता
पढ़ता हूँ
बाहर की नदी
झरझराने का
आसमानी इंतज़ार
सूखकर
झंकड़ हो जाता-सा
पूरा पहाड़-हाड़ !
बहुत बार
अपने ही चेहरे भर
झुर्रियाँ हर बार
पूरा पहाड़-हाड़ !!!