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मुँह चिढ़ाती
लम्बे चौड़े पुल को
सूखती नदी ।
ऊब चले हैं
वर्षा की प्रतीक्षा में
पैड़-पौधे भी।
पीने लगा है
धरती का भी पानी
प्यासा सूरज।
निकली नहीं
कंजूस बादलों से
एक भी बूँद ।
तरस गये
पहचान को खुद
सावन-भादौं ।
कहो तो सही
मन प्राणों से तुम
वक्त सुनेगा ।
प्रीति, हाँ प्रीति
दुनिया में सुख की
एक ही रीति ।
आप से मिले
तो लगा क्या मिलना
किसी और से !
ढूँढ़ता रहा
खुद को दिन रात
ढूँढ़ न पाया !
छोटा कर दे
रातों की लम्बाई भी
गहरी नींद ।
छीन ही लिया
नदी का नदीपन
प्यासे बाँधों ने ।
रिश्तों से ज्यादा
तनाव बसते है
घरों में अब !
युग-युगों से
सोए पड़े पहाड़
जागेंगे कब ?
गावों से लाता
शुद्ध आक्सीजन भी
वश न चला ।
भीड़ तो बढ़ी
विरल हो चले हैं
रिश्ते परंतु ।
रात होते ही
गोलबन्द हो गये
चाँद सितारे ।
घिर गया है
विषैली लताओं से
जीवन वृक्ष ।
बुझते हुए
पल भर को सही
लड़ी थी लौ भी ।
मैं नहीं हूँ मैं
तुम भी कहाँ तुम
सब मुखौटॆ ।