यह जो मन मार कर
पसरा है आकाश
यह शुरूआत नहीं है ।
यह जो डुबकियाँ लगाकर
बैठा है पत्थर
यह मायूसी नहीं है ।
यह जो अख़बारों में लगातार
लुप्त हो रही है सभ्यता
यह ढाई आखर नहीं है ।
यह जो मेरे भीतर छटपटा कर
खोजा करता है प्रेम
यह तुम्हारी रूपकथा नहीं है ।