Last modified on 29 जून 2010, at 14:52

ग़ज़ल-चार / रेणु हुसैन

Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:52, 29 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेणु हुसैन |संग्रह=पानी-प्यार / रेणु हुसैन }} {{KKCatKav…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


कश्ती नहीं कोई मगर उस पार जाना है
रेत पर ही सही लेकिन घर बनाना है

बहुत मुश्किल ही सही, तन्हा सफ़र करना
चल पड़े इक बार तो चलते ही जाना है

ये ज़िन्दगी जैसे कोई, फैला हुआ जंगल
हर किसी को अपना रास्ता खुद बनाना है

दर्द में आंखों से आंसू आ ही जाते हैं
पर अजब शै आंसुओं का मुस्कुराना है

कितने सितारे आसमां में है मगर
इक सितारा हमको भी इसमें सजाना है