Last modified on 1 जुलाई 2010, at 14:06

अपने ही रचे हो / सांवर दइया

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:06, 1 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>पहली बरसात के साथ ही घरों से निकल पडते हैं बच्चे रचने रेत के घर …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पहली बरसात के साथ ही
घरों से निकल पडते हैं बच्चे
रचने रेत के घर

घर बनाकर
घर-घर खेलते हुए
खेल ही खेल में
मिटा देते हैं घर

अपने ही हाथों
अपने ही रचे को मिटाते हुए
उन्हें नहीं लगता डर

सुनो ईश्वर !
सृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो-
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार ?