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फ़िलहाल / हेमन्त कुकरेती

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दिन मुझे बाँधकर चल रहे हैं
रात मेरी नींद छीनकर सपने में बीत रही है

घर से भागना एक खेल है
इस तमाशे में अपनी कनपटी पर
धमाका करता हूँ
तो ज़िन्दगी मज़ाक हो जाती है
नहीं तो इतना बोझ कि
हर मिनट मरना भी नाक़ाफ़ी

कहता हूँ कि ख़ुद से कि
अपने को मैं बहुत कम जानता हूँ
फिर क्यों इतना भय ?

साँस लेने के लिए मैंने मास्क चढ़ा रखा है
यह जो कमीज मैंने पहनी हुई है कवच है दरअसल
सुरक्षा के लिए अपने पते पर मैं धमकी भरे
गुमनाम पत्र भेजता हूँ
छाती पर साइनाइड और कमर में बारूद भरकर
भीड़-भरे तहखाने में सुरंग की तरह बिछा रहता हूँ

रोज़ मेरे लिए प्रयोग होते हैं
रोज़ नयी बीमारियाँ घेर लेती हैं मुझे
रोज़ मैं बड़ा होता हूँ
रोज़ मैं कम होता हुआ बीत रहा हूँ

इतने पर भी मैं
अपने पक्ष में खड़ा होने की सोचता हूँ
कि अनन्तकाल के लिए
भंग हो जाती हैं संसद