Last modified on 2 जुलाई 2010, at 11:53

अपराधी देव हुए / कुमार रवींद्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 2 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपराधी देव हुए
ऎसे में क्या करें मंदिर की घंटियाँ

उनको तो बजना है
बजती हैं
कई बार
आपा भी तजती हैं

धूप मरी भोर-हुए
कैसे फिर धीर धरें मंदिर की घंटियाँ

भक्तों की श्रद्धा वे
झेल रहीं
आंगन में अप्सराएँ
खेल रहीं

उनके संग राजा भी
देख-देख उन्हें तरें मंदिर की घंटियाँ

एक नहीं
कई लोग भूखे हैं
आँखों के कोये तक
रूखे हैं


दर्द सभी के इतने
किस-किस की पीर हरें मंदिर की घंटियाँ ।