तुम्हारी काया :
चाँदनी
रात के दूसरे पहर में
उमड़ता हुआ समुद्र
काँच के नाज़ुक आबगीने से मानो
छलक रहा हो
समय का महाराग
प्यास की तरह लिपटा हूँ मैं
तुम्हारी काया के काँच से
अग्निरूपा
सहस्ररूपा तुम
भोर से पहले न जाने कितनी बार
भोर रचोगी
हर क्षण अब एक नए लोक में
जन्मान्तर हूँ मैं...