कोई भी ऊंचाई
आखिर क्या देती है
सिवाय एक हद के
मैं कभी नहीं चाहूंगा
मेरी कविता
बंधे किसी हद में
कोई भी पहाड़
महज़ एक पत्थर हो सकता है
और कोई भी पत्थर
एक विषालकाय पर्वत
पूरा समंदर
हो सकता है महज़ एक चुल्लू
एक चुल्लू
पूरा समंदर
कोई भी ऊंचाई
आखिर क्या देती है
सिवाय एक हद के
मैं कभी नहीं चाहूंगा
मेरी कविता
बंधे किसी हद में
कोई भी पहाड़
महज़ एक पत्थर हो सकता है
और कोई भी पत्थर
एक विषालकाय पर्वत
पूरा समंदर
हो सकता है महज़ एक चुल्लू
एक चुल्लू
पूरा समंदर