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माँ / गोबिन्द प्रसाद

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दो लहरें साथ रहती हुईं
जब कभी मिलने को होती हैं
तो लगता है-माँ के होंठ कुछ कहना चाहते हैं

नदी कभी सोती नहीं है
मुड़ती,ठिठकती
भटकती और टकराती
अविराम
बहती रह्ती है नदी
सदियों तक
बहुत हुआ तो ऊँघती है
उसकी लहरें
उदासी में कभी-कभी
पानी के पर्तों के बीच गूँजता है सन्नाटा
कुछ टूटता है कहीं मँझधार में

अपनी स्मृति के आँचल में दु:खों को छिपाए
बहुत नीचे अतल में सिसकती
फिर भी बहती रही चट्टानों से टकराती
नदी की तरह माँ भी
जागती रहती है हमारी आँखों में
सपनों के लिए,सपना हो जाने तक