Last modified on 6 जुलाई 2010, at 13:01

धरतीपुत्र / विजय कुमार पंत

Abha Khetarpal (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:01, 6 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> रक्ताभ भाल मंथर मंथन , …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रक्ताभ भाल
मंथर मंथन ,
स्पंदन विहीन
गति , कंटक मन ,
ढोते, हल का भारी बोझा
धरती के बेटे का जीवन
धवल श्वेत कपास का रंग
फैलेगा कब अंग - प्रत्यंग
कब घोर कालिमा पहनेगी
वो चिर प्रकाशमय नव उमंग
कब सुन पाएंगे इन्द्र देव
ये हाहाकार करुण क्रंदन
धरती के बेटे का जीवन
फिर निकली जिहवा तन निवस्त्र
देह छिन्न -भिन्न और त्रस्त
दो आंखें बंद लिए सपने
एक सूर्य हो गया यूँही अस्त
कैसा कपास ? वो क्या पहने ?
हम ओढ़ा रहे थे जिसे कफ़न
धरती के बेटे का जीवन
मन बार बार ये सोच रहा
कर्त्तव्य बोध क्या हम में था ?
यदि हाँ तो मुझको समझाओ
फिर क्यूँ नंगा भूखा वो मारा
क्या बचा हुआ है संवेदन
धरती के बेटे का जीवन
बस इतना करदो सब मिलकर
फिर जीवन यूँ न आहत हो
मरने की वो भी न सोचे
जी भर जीने की चाहत हो
यूँ लुटे न अपनी आन -बान
फिर मरे न अपना एक किसान
अपना सहयोग बने, बंधन
धरती के बेटे का जीवन