Last modified on 7 जुलाई 2010, at 09:04

साँस / उदयन वाजपेयी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:04, 7 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मरने के ठीक पहले माँ की साँस की डोर छाती के भीतर बुरी तरह उलझ गयी है। उसे सुलझाने की जगह मैं उसका हाथ पकड़ लेता हूँ। रसोईघर के फहराते प्रकाश में मैं आग के सामने बैठा हूँ। माँ चूल्हे में फूलती रोटी को ताक रही है। सुदूर गहराते आकाश-मार्ग पर पिता के छूटे हुए पद-चिन्हों की तरह नक्षत्र दिखाई देना शुरू हो जाते हैं। माथे की झुरियों में फँसे हाथों से नाना नींद की ओर सरक रहे हैं।

अँधेरी छत पर खड़ी नानी पूरी ताकत से चीखती है: लो-लो वह चल दी।