Last modified on 7 जुलाई 2010, at 11:37

सुकून / मनोज श्रीवास्तव

Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:37, 7 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' सुकून ''' ऐ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सुकून

ऐसी सर्वसम्मति
सर्वसहमति है कि
जब विस्फोट-धमाका हो
तो धुएं चुपचाप बादलों में
घुल-मिल जाएं,
भूकंप-भ्रंशित दरारों में
बस्तियां मर-पिच जाएं,
चक्रवातीय झापड़ों से
जन-जीवन पलीद हो जाए,
दुश्मनों की घुसपैठ हो
पर, सेनाएं खर्राटे भरें,
बीमार भेड़िए की तरह
सरकार मांद में
स्वास्थ्य-लाभ ले रही हो,
हुड़दंग, दंगे-फसाद
आगजनी, खून-खच्चर आदि
बेशुमार हों, पर
न राहत मिले
न स्वयंसेवक ज़िंदा लाशों की
गुहार-पुकार सुनें
न मंत्री, पी.एम. दौरा करें
न मीडिया, दूरदर्शन शोकातुर हों,
अकाल-सकाळ मौतों के बाद
लाशें जहां-तहां सड़-गल जाएं,
जैसे कुछ हुआ न हो की तर्ज़ पर
हम गूंगे, बहरे, अंधे बन
प्रदूषण और महामारी फैलाने दें
और लोग-बाग़
बाढ़, बड़वानल, बर्फपात
देवी दमन-चक्र, दावानल, उल्कापात
सभी की बन जाएं सहर्ष खुराक
और इन सबकी एवज़ में
निराभाव, निर्विकार,नि:शब्द
चुप्पी छाई हो
जिसकी सनसनाहट
कान को गिलास से ढंके जैसी हो
तो हमें बड़ा सुकून मिलता है

विकलांग सड़कें
अर्थी चढ़ी इच्छाओं वाले
दिल जैसी यंत्रवत व्यस्त हों,
नदी-नहरों का पानी
पोस्टमार्टम हेतु रखी लाशों में
फटे खून की तरह जमा हो,
हवा, एक दुर्घटनाग्रस्त परिवार में
इकलौती बची अबोध बच्ची जैसी
बदहवास और गुमसुम हो,
रोशनी बाज के निशाने पर
पिंजरे में क़ैद
पंख-कटी
और रिहाई को तरसती
बूढ़ी पंछी की तरह
गश खा रही हो

हमें बड़ा सुकून मिलता है
जबकि एक बूढ़ी मक्खी की तरह
स्तब्धकारी नीरव अँधेरा
एकछत्र बनाकर बसेरा
लुढ़कती हुई बैठ जाए
कभी सिर पर
तो कभी पैर पर
और यह भी एहसास न हो सके--
कि हम जीव हैं या निर्जीव
चर हैं या अचर
मालिक हैं या गुलाम
स्मृतिवान हैं या जड़-मूल
अक्रिय हैं, निष्क्रिय हैं या सक्रिय

हमें और भी सुकून मिलता है
जबकि समय--
लिसढ़ती इंजिन की भाँति
ठहर कर रह जाए
क्योंकि उसकी गड़गड़ाहट से
धमधमाहट से
स्मृतियों के दलदल में
घुट-मिट चुका इतिहास
जग उठता है
और हमें रिझाकर, चिढाकर
हंसाकर, रुलाकर
अकारण-सकारण
जीवन-पथ पर
घसीटते हुए
आदेशित-निर्देशित करने लगता है
तब, हमें व्यर्थ व्यग्र और
सोद्देश्य गतिशील होने के लिए
कसमसाने लगते हैं
और इस अजगरनुमा राष्ट्र की
तामसी आत्मा सुगबुगाने लगती है
जैसेकि वह अभी भी
स्पन्दनशील हो, जीवमान हो

ऐसे में
हमारे राष्ट्रीय सुकून को
ग्रहण लग जाता है

इसलिए, आइए!
इतिहास के कर्णस्फोटक आह्वान को
स्मृतियों में दफ़्न कर दें
उसे उसकी निष्क्रियता, निर्जीविता
और बहुमुखी शून्यता की
जंजीरों में बाँध दें
क्योंकि वह बारम्बार
हमारा अस्तित्त्व-बोध कराता है
मुड़-मुड़ कर हमें आग़ाह करता है
समय के साथ क़वायद करने को
उकसाता है.