Last modified on 12 जुलाई 2010, at 21:36

वातावरण / त्रिलोचन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:36, 12 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

साँझ गुलाबी काँप रही है ठंड से,
उधर गुलाबों के पौधे लाचार हैं
झूल झूल कर फूल हवा से कह रहे
हैं यह, इतनी, छेड़छाड़ अच्छी नहीं ।

काँप रहे हैं पेड़, तृणों की बात क्या
यहाँ चलाई जाय । सुदूर दिगंत में
मेघ-खंड सहसा उद्भासित हो गए,
सूर्य क्षितिज को सूना करके देर का

चला गया । हलकी आभा आकाश की
क्रमशः हलकी हो कर नभ की नीलिमा
को गहराती चली । नीलिमा क्या हुई,
यह, इतनी, श्यामता कहाँ थी जो यहाँ

से धीरे धीरे सारे संसार में
फैल गई । धूमाच्छादित हैं वृक्ष वे,
टहनी टहनी डाली डाली थाम के
धुआँ और ऊपर चढ़ता है, गंध से

वातावरण बसा है, जनपथ पुत गया
बिजली की आभा से । कुहरा क्षीण है,
अस्ति नास्ति के बीच । लोग आ जा रहे
पैदल या सवारियों से, आवाज़ की

बाँहें इधर उधर फैलाए राह में
अत्र तत्र सर्वत्र शीत का ज़ोर है ।