Last modified on 15 जुलाई 2010, at 04:32

स्मृतियां / ओम पुरोहित ‘कागद’

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:32, 15 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>कुम्हार के चाक सी घूमती जिन्दगी, स्मृतियों के घड़े संजोती चली आ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कुम्हार के चाक सी
घूमती जिन्दगी,
स्मृतियों के घड़े
संजोती चली आ रही है
मैं देखता हूं--
सुबह को कांधे पर लाद कर,
मजदूर दिन
सांझ के घर छोड़ आता है
और सो जाता है,
गरीबी की रेखा के नीचे आ कर।
सुबह फिर उठा देती है उसे,
सुबह आकर।

मैने देखा है--
धूप को
मजदूर की पीठ पर
श्रम बन कर नाचते।
परछांइयों को
पीछे खीचता पारिश्रमिक,
उतारता है धूप को
मजदूर की पीठ से।
पास ही कोनों में
छुप कर सो जाती है धूप,
गरीब की रेखा के नीचे आकर।
सुबह फिर उठा देती है उसे,
सुबह आकर।

मैने देखा है--
भूख को
मशीन में उंगलियां देते
मजदूर के पेट में मरते।
सांझ फिर जिलाती है
चने खिला कर उसे
दोपहर के बाद।
मिल के पीछे
गन्दे क्वार्टरों में
सो जाती है भूख,
सांझ,
श्रम,
मजदूर के साथ,
गरीबी की रेखा के नीचे आकर।
सुबह फिर उठा देती है उसे,
सुबह आकर।

सुबह........
मिल के भोंपू के रोने से पहले,
सुबह फिर उठा देती है उसे,
सुबह आकर।