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आग / लीलाधर मंडलोई

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मेरी मेज पर
टकराते हैं
शब्‍द से शब्‍द

एक चिंगारी उठती है
और कविता में आग की तरह
फैल जाती है

आग नहीं तो कविता नहीं
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