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गुड़िया-5 / नीरज दइया

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यहाँ की नहीं तुम
आई हो किसी लोक से
सुंदर-सी बन गुड़िया

जब भी देखता हूँ-
पाता हूँ तुम्हें
मासूम-सी एक गुड़िया

अब बचपन जा चुका
कहाँ छुपा सकता हूँ तुम्हें -
मन के सिवाय !