Last modified on 28 जुलाई 2010, at 01:05

चैन / भारत भूषण अग्रवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:05, 28 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारत भूषण अग्रवाल |संग्रह=उतना वह सूरज है / भारत …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ज़िंदगी को पकड़ूँ
या अपनी समझ को
क्योंकि दोनों के बीच
मैंने जो रिश्ता
खींच-खींचकर बैठाया था
वह अब टूट रहा है ।
और उसकी पीठ पर टिका जो चैन था
वह बीच सड़क पर बिखर गया है
साइकिल के पीछे बँधे आटे की कनस्तर की तरह
और मैं सोच रहा हूँ कि
साइकिल छोड़कर बिखरा आटा समेटूँ या
-- पर मारो गोली
साइकिल तो रूपक है
बात तो चैन की है जो बिखर गया है ।