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सांस-सांस / हरीश भादानी

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सांस-सांस
रसमसती रहती रेत
अंगुलियों से
होता रहता रचाव
प्रतिमाओं का
सन्नाटे के
शिलाखंड पर
क्षण की छैनी
उकेर दिया करती है भाषा
मैं-तुम

मैं-तुम
प्रतिरूपों से भी
वही-वही तुतलाया जाता
आंगन गली
चौक जी जाया करते
यहीं यहीं लगता है
रंगवती हो गई
जिन्दगी की अभिलाशा
ओ मैं ओ तुम
उसे भी कह दो
जहां झुका करती है आंख
अर्चना की
वे होते हैं प्रतीक प्रतिरूप
यही एषणा आज
अनागत यही

प्रतिरूपों
और प्रतीकों पर
जब-जब लगता है प्रश्न
तब-तब
उत्तर की खातिर अकुलाती हुई
एषणा बोला करती
बिना राग आलाप
जिया जाता है कैसे?
            
जनवरी’ 80