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13 / हरीश भादानी

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पहले
भोर से उजड़ी अँगीठी को बसाने
साँझ का गुबार ओढ़े
हूँकती हुचकियों को दबाएँ
पहले
फूटे पेटवालों, के मुँह में भरें.....
कुछ धीरज का मसाला
ठंडे लिजलिजे शरीरों पर
सौ बार मोटी थपकियां लेवे
मम्मियों जैसा सुलाएँ
भूख
जोड़ बैठी है कचहरी
नींद पर हथोड़ा पीटनी
तकाज़े कर रही है-
आंगन में जितने पड़े हम-रूप-साहूकार !
सबको
दो समय की किश्त तो देनी पड़ेगी
कर्जा चुकाने
सांसों की रोकड़ मिलाने बाद-
बचेगा क्या?