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16 / हरीश भादानी

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एक हम
और हमारा दर्द दोनों साथ जन्में !
जन्म से बीमार,
गूंगे दर्द को थामे-सम्हाले
सूर्य के मेहमान
बनने को चले हम,
धूप से सेका, हवाएँ की
मगर इस दर्द का नासूर बढ़ता ही गया,
और पीप रिसता ही गया-
हर मोड़, चौराहे-दुराहे पर आवाज़ दी
हमने हर एक अपने को,
बन्द ढ़्योढ़ियों पर दस्तकें दी कि-
जन्म से प्यासे-अबोले
हमारे जुड़वाँ-दर्द को
कोई दी बूँद परनी दे,
दुखते हुए नासूर धो दे,
यह सही है-
हमारी साँस कड़वी है,
हमारे पास केवल एक गटरी है,
जिसमें हमारे मेजबान-
सूरज के लिये सपने बन्धे हैं,
और इनके साथ
दूरियों के छोर छूने जा रहे हैं,
ऊँचे झरोखो वाले
अपनों के लिये हमारे पास कुद भी तो नहीं है
एक क्षण भर ही
दुखेगा मन-
आँखे डबडबायेंगी,
दूरियों के पार
हमारे ही लिये प्रतीक्षित
सूरज से मिलते समस कि-
दागी रह गया हमारा दर्द !