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17 / हरीश भादानी

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हमारे ही इरादे
हमें बदनाम करने को उतारू हैं?
मौसम की खुशामद पर
रीझा हुआ मन
यादों के बुलावे
भेजना चाहता तुम्हें
पर तुम्हारी सौत-
भूख के जाये ये बनजारे इरादे
सपनों का तमाशा
बाज़ार में दिखाने को उतारू हैं !
अभावों के नकेले
ये हमारे पानीदार सपने-
नंगापन छिपाने धरती गोदते हैं,
बिफरते हैं
और तमाशे देख कर जीती हुई
बेशर्म दुनियाँ
सिक्के फेंक
ओछी चोटें मारती है
खून तो आये कहाँ से?
साँस के उगलते हुए
बदरंग झागों से भीगी
हमारी प्यास
बेहोश होना चाहती है
किन्तु तेंषरते इरादे
सब्र की सारी बुर्जियाँ तोड़
बगावत करने को उतारू हैं !
अब तुम कहो,
अटारी पर बैठी भरम की अप्सराओ !
मौसम के हाँके हुए
मन के लिये तुमको
तुम्हारी याद को कैसे बुलायें-?
कहाँ से राजवंशी संस्कारों को चुरायें-?
कौन से आंगन बिठायें-?
खूबसूरत बहानों में
बदल जाने
हम अपने इन इरादों को कैसे मनायें-?
क्या करें-
जो ये इरादे जन्म से गँवारू हैं !