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27 / हरीश भादानी

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किस फसल बीजा गया
यह बीज मन का ?
गहरे-बहुत गहरे
धरती की अंतड़ियों को जकड़ पैंठी जड़ें,
गर्भस्थ-
जहरीले सँपोलों से, मकोड़ों से
लड़-खड़, झगड़
देती रही रसधार
उषा की गोद में हँसते
सनातन सूर्य को साक्षी बनाकर
विकसते
और संध्या की थपकियों से उनींदे
स्वप्न-बीजों को;
यह किस फसल बीजा गया ?
क्षुद्रतायें लांघता ऊपर उठा,
उठता गया कि-
उथली उलझनों की टहनियां
घेरे नहीं लम्बी परिधियाँ,
पर वक्रताओं में उगे,
उभरे अभावों के कठफोड़वे को
आदत नहीं है देखने की
संवरती ऊँचाइयाँ मन की,
नुकीली चोंच से
चोटें लगाता जा रहा है,
छोलता ही जा रहा है रेशई वतैं कि-
जा न पाये और ऊपर
अब कहीं जीवार्द्रता !
यह किस फसल बीजा गया ?
मन की आस्था
ईमान के ओ, सबल-साक्षी
सनातनी सूरज !
मन अगर झुलसे
तुम्हारी आग में झुलसे,
मन की गति के सृक्ष्म-दृष्टा
ओ गगन के मारवाड़ी पवन-पौरुष !
मन अगर टूटे
तुम्हारी रगड़ से टूटे
सिर्फ इतना याद रखना
अभावों का कठफोड़वा तोड़े नहीं मन को !
चाहे जिस फसल बीजा गया हो
बीज मन का !