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36 / हरीश भादानी

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कच्ची उमर की
अनेकों रंग घोली हुई प्यालियों में
डुबो सांस की कूंचियाँ
अनागत के कैनवास पर
हमने सपने चितारे-
निहोरती साँझ के,
आकाश-गंगा में बहते हुए प्यार के
और रागें छुआती
सरकती रात के रंग भरते हुए
हम निंदिया गये,
और सोये ही रहते बड़ी देर तक-
मगर हेम का गर्भ फोड़
जन्में हुए सूर्य ने
पोर-पोर किरणें चुभाकर जगाया हमें
देखते ही रहे हम-
नीला फैला हुआ कैनवास
धूप सा हो गया,
रंग सारे उड़े
न निहोरती सांझ थी,
न आकाश गंगा का
बहता हुआ प्यार था,
शेष थे
सिर्फ दो-चार हासिये-
जिन्हें जोड़कर हमही अकेले बने-
सांस फूली हुई,
पेट चिपका हुआ,
हाथ ताने हुए,
आंख में सुर्खियाँ-
सिर्फ सुर्खियाँ फैली हुई,
हाँ, हम ही खड़े थे-
हड्डियाँ जोड़ कर
ऊँची बहुत ऊँची
उठाई गई दीवार जैसे !